प्रतीक्षा....
बारिश बहुत है, इतनी तेज़ कि सड़क पार का घर कुछ धुँधला ही दिख रहा है, मेरे जूतों में पानी भरा है, और चश्मे पर पानी की बूँदें हैं, एक डफ़ल बैग को मैंने पुरानी बेंच पर रखा है और लैपटॉप वाला बैग कंधे पर है, सुबह लेट उठा तो हॉस्टल में नाश्ता नहीं मिला, बारिश इतनी थी कि हॉस्टल से हाईवे तक आने में पूरा भीग गया, तो आने में देरी हुई, तो बस भी निकल गई, और उस बस के साथ-साथ 400 रुपये भी...
मैं नीचे मेरे जूतों को नहीं देख रहा हूँ, कीचड़ देखकर, गैग reflex जैसा कुछ होता है, फोन भी कम चार्ज है, कहीं ज़्यादा देर चलाया तो दम तोड़ देगा, अभी तक माँ के दो कॉल आ चुके हैं, वो परेशान हैं कि मैं बस में बैठा कि नहीं, दूसरे कॉल में मुझे थोड़ी झुँझलाहट हुई और मैंने कहा कि माँ दूसरी बस आ रही है, बैठकर बताता हूँ।
बस की प्रतीक्षा में अब मस्तिष्क भी जवाब दे रहा है, धीरे-धीरे अपना दर्द छोड़ रहा है। कुछ देर में बस आती है और अपनी सीट पर मैं बैठ जाता हूँ।
अपने गीले जूतों को खोलता हूँ और कुछ देर पैर सीधे कर के आराम करता हूँ। बस की दूसरी रो में, मेरे दाएँ हाथ पर एक महिला बैठी हैं, लगभग मेरी माँ की उम्र की और उनके पास में उनकी शायद बेटी बैठी है जो देखने पर मालूम पड़ा कि कुछ नाराज़ है अपनी माँ से।
मेरा फोन बजता है, माँ का कॉल, फिर से।
मैंने उनको बताया कि मैं सीट पर बैठ गया हूँ, बस निकल गई है। माँ आज शायद थोड़ा ज़्यादा परेशान थी, उनकी भाषा में थोड़ा क्रोध, चिढ़ और निराशा थी, चूँकि उनकी बात किसी ने सुनी नहीं होगी या अनसुनी कर दी होगी तो अपना बोझ हल्का करने के लिए माँ ने मुझे फोन किया, मैं सुनता रहा, बीच में एक धीमे स्वर का 'हम्म' कर देता, और माँ बोलती रहीं। कुछ देर बाद मेरे सिर का दर्द, और सालों पुराना मित्र 'मोशन सिकनेस' मेरी यात्रा सुगम और यादगार बनाने आए, अब मैं माँ की बात से छुटकारा पाना चाहता था, पर आज माँ चुप नहीं हुईं। कुछ 15 मिनट के बाद मैंने कुछ ऊँचे स्वर में कह दिया, "मम्मी ठीक है ना....आज ही सब बात करनी है क्या? इतनी परेशानियाँ तो हैं भी नहीं जितनी आपने गिना दी। मैं थोड़ा सोने जा रहा हूँ, सर दुख रहा है। और मैं लगा लूँगा कॉल पहुँचूँगा तो।"
इतना बोलने पर सामने से केवल एक उत्तर आया "चलो ठीक है बेटा" और फोन कट।
ए.सी. ने मेरे पैर सुखा दिए थे और मैं सो गया, और उठा तब जब एक ढाबे पर बस रुकी। मैंने अपने नियम अनुसार, एक कॉफी का कैन खरीदा और लेकर वापस अपनी सीट पर आ गया। मुझे लगा बस खाली है पर घुसने पर मालूम पड़ा कि मेरे बगल में बैठी माँ-बेटी की जोड़ी अंदर ही है, मुझे देखते ही दोनों चुप हो गए और मेरी तरफ़ देखने लगे, दोनों के बीच में कुछ तना-तनी थी ही और उस बीच मैं और आ गया, उस क्षण मुझे बस से उतर जाना था पर मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
"I am fed up with you माँ, मैं अकेले आ सकती थी, I'm not a kid, हर बार आपके पल्लू से बँधे रहूँ क्या?" इतना बोलकर उस लड़की ने अपना फोन निकाल लिया और उसकी बची हुई चल-चित्र वो देखने लगी। उसकी माँ कुछ असहाय भाव लेकर बैठी रहीं, बिना कुछ कहे वो खिड़की की तरफ़ देखने लगीं और उनकी आँखों में उदासी छा गई।
मुझे उनके लिए बुरा लगा, मैं उस क्षण चाहता था कि काश मेरी संवेदनाएँ उन महिला के पास पहुँच जाएँ। मन ही मन मेरी आंतरिक लड़ाई चालू हुई, उस लड़की के प्रति द्वेष होने लगा, कि अपनी माँ को कोई ऐसे कैसे कह सकता है, माँ को बेटी की सुरक्षा की चिंता रही होगी तो उसके साथ आ गई, इसमें इतनी अभद्रता से अपनी जन्मदात्री माँ से बात क्यों करना। बस ने अपनी गति पकड़ी और साथ ही मेरे मन में ये लड़ाई चलती रही। ज्यों ही आँखें बंद करी त्यों ही मुझे मेरी माँ का चेहरा सामने आया।
दिल भारी सा हुआ, आँखें खुल गईं, अभी कुछ देर पहले मैंने भी तो अपनी माँ को यूँ ही झकझोर के डाँट दिया था, क्या मैं भी इस लड़की के जैसा हूँ?
जब मैं स्कूल से घर आता तो सबसे पहले किचन में घुसता, और सारे करम-कांड, सारी उल-जुलूल बातें, सारा अर्जित ज्ञान-विज्ञान माँ को आके सुनाता, माँ रोटी सेक रही होतीं और मेरी बातों को इतने ध्यान से सुनतीं कि जैसे मैं कोई बहुत बड़ा आदमी हूँ, उनके चेहरे पर एक भीनी मुस्कान होती और आँखों में संसार भर की करुणा।
मैं आज माँ की बात खत्म होने की प्रतीक्षा नहीं कर पाया,
पर माँ मेरी हर बात खत्म होने की प्रतीक्षा करती रहीं।
जब कभी सुबह माँ टिफिन बनाने में लेट हो जातीं या कभी देर से उनकी नींद खुलती, तब झुँझला कर मैं ये बार-बार उनको बताता कि आज लेट हो जाऊँगा, माँ अपराध-बोध लिए सारा काम करती रहतीं।
मेरे घर से निकलने से लेकर ऑटो में बैठने तक माँ छाती को हाथों के बल टिकाये, बालकनी से थोड़ा लटक कर सिर आगे झुकाकर मुझे बड़े धैर्यपूर्वक देखतीं, जब तक कि ऑटो निकल नहीं जाता।
वापस आता तो, माँ मुझे उसी मुद्रा में बालकनी में दिखतीं, मेरी प्रतीक्षा में।
माँ के टिफ़िन बनाने की प्रतीक्षा मैं नहीं कर पाता
पर मेरे घर आने तक माँ मेरी प्रतीक्षा में खड़ी रहतीं।
मुझे क्रिकेट का शौक था, मेरा दाखिला एक पास के क्लब में पिताजी ने कराया, पहले दिन जाना था पर पिताजी काम से बाहर चले गए, माँ ने कहा कि मैं ले जाऊँगी।
मैं माँ के साथ गया, मैदान देखते ही मैं उस कोने में भागा जहाँ नेट प्रैक्टिस हो रही थी और माँ की तरफ़ नहीं देखा।
3 घंटे बाद जब मैं बैग लेकर मैदान के गेट तक आया तो देखा माँ पेड़ की छाँव में बैठी हैं और कुछ सरकारी स्कूल के छात्रों से बात कर रही हैं।
माँ तीन घंटे बैठी रहीं.......
उनको देखकर मुझे याद आया कि उनकी पानी की बोतल भी मेरे किट बैग में थी, मैं उन्हें बिना दिए ही खेलने भाग गया।
माँ को बोतल देने की प्रतीक्षा मैं नहीं कर पाया
पर माँ मेरे खेल के लिए मई की भारी दोपहरी में मेरी प्रतीक्षा में बैठी रहीं।
बचपन में जब माँ के पास सोता था और कभी पेट दर्द या सिर दर्द करता तो माँ कुछ मंत्र मन में पढ़कर मेरे उस अंग पर फूँकतीं, ताकि दर्द में आराम हो जाए। माँ तब तक ये क्रिया करतीं जब तक मैं सो न जाऊँ।
मैं भी ऐसा ही करता, जब माँ को किसी अंग में दर्द की शिकायत होती तो मैं भी मंत्र मन में पढ़कर फूँकता पर मुझे नींद आ जाती और मैं सो जाता...
मैं माँ के सो जाने तक उनकी प्रतीक्षा नहीं कर पाता
पर माँ मेरे सो जाने की प्रतीक्षा में मंत्र फूँकती रहतीं।
ये सारे विचार, सारे दृश्य एक-एक कर मानस पटल पर आने लगे... अब उस लड़की से ज़्यादा अपराधी मैं खुद को मानने लगा।
उन दृश्यों की कमी नहीं है, जब मैं माँ की प्रतीक्षा नहीं कर पाया, पर माँ मेरी प्रतीक्षा में रहीं।
कितना सुगम है किसी को अपनी प्रतीक्षा में पाना और
कितना दुर्गम है किसी की प्रतीक्षा करना।
मन में मैंने अपने आप को अपराधी मान लिया है, और अब सारे विचार बंद हो गए हैं, बस मेरे शहर में पहुँच गई है, और बस कुछ देर में घर पहुँचना है।
माँ से आख़िरी कॉल पर ये तो स्पष्ट हो गया था कि माँ मेरी प्रतीक्षा तो नहीं कर रही होंगी।
अपने दोषों को मैं खुद से अब नहीं छिपा सकता,
माँ अब जब भी प्रतीक्षा में होंगी, मैं अपने आप को थोड़ा और दोषी पाऊँगा,
क्योंकि मैं माँ जैसी प्रतीक्षा कभी नहीं कर पाऊँगा।
माँ जैसी प्रतीक्षा करने के लिए, मुझे अनेक जन्मों की प्रतीक्षा करनी होगी।
ख़ैर, अभी तो बस माँ के पास जाना है।
मैं जैसे ही सोसाइटी के गेट से अंदर घुसता हूँ तो अपनी आदतानुसार सिर उठाकर ऊपर देखता हूँ, अपने घर की बालकनी में, वैसी ही मुद्रा, वैसी ही शैली, वैसा ही धैर्य धारण किए, छाती को हाथ के बल टिकाए, सिर को आगे झुकाए, दाएँ ओर निहारते हुए माँ खड़ी थीं, प्रतीक्षा में...
मैं तब भी माँ की प्रतीक्षा नहीं कर पाता था,
मैं आज भी माँ की प्रतीक्षा नहीं कर पाता हूँ।
माँ तब भी मेरी प्रतीक्षा में खड़ी रहती थीं,
माँ आज भी मेरी प्रतीक्षा में खड़ी रहती हैं।
मैं आज फिर हार गया,
माँ आज फिर जीत गईं।
कितना सुगम है किसी को अपनी प्रतीक्षा में पाना और
कितना दुर्गम है किसी की प्रतीक्षा करना।
कितना भयावह होता होगा वो दृश्य जब आपको अपने घर का ताला स्वयं खोलना होता हो,
कितना भयावह होता होगा वो दृश्य जब आप घर आएँ और माँ के हाथ की गरम फूली हुई रोटी आपकी प्रतीक्षा में न हो,
कितना भयावह होता होगा वो दृश्य जब आप घर पहुँचें और आपके देर से आने के लिए पिता की डाँट आपकी प्रतीक्षा न कर रही हो।
अब मैं इस प्रतीक्षा में हूँ कि कब मैं माँ जैसी प्रतीक्षा करना सीख पाऊँ...
ख़ैर अब घर जाता हूँ, माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं।
~ अनंत

So beautifully written.